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विमर्शजन-विश्वास का पर्याय है मूल्यबोध आधारित पत्रकारिता

- डॉ. धनंजय चोपड़ा
डिजिटल हो गए इस समय में अपने होने का विश्वास दिलाती पत्रकारिता के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती है, वह केवल और केवल अपनी विश्वसनीयता को बचाए रखना है। कहा यह भी जा सकता है कि इन दिनों अपनी पत्रकारीय शुचिता और विश्वसनीयता को पुन: प्राप्त करने की चुनौती भारतीय पत्रकारिता के सामने है। कुछ हैं, जो इस चुनौती को स्वीकार करके नए समय में अपनी उपस्थिति बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि बहुतों को इस चुनौती से कोई लेना-देना नहीं है और वे अपनी रौ में बहे जाने पर ही विश्वास करते हैं। विशेषकर अधिकांश टेलीविजन न्यूज चैनल बाजार की जरूरतों का हवाला देकर उन मूल्यबोधों को सिरे से खारिज कर देते हैं, जिनके बलबूते भारतीय अखबारी पत्रकारिता अपने लिए स्मृति परम्पराओं को निरंतर गढ़ सकी और हर तरह के गाढ़े समय में स्वयं की आवश्यकता को सिद्ध करने में सफल हो सकी। सच तो यह है कि भारतीय पत्रकारिता ने अपने प्रारम्भिक दिनों से ही समाज, संस्कृति और सरोकार को साथ रखकर आगे बढऩा शुरू किया और पत्रकारिता के लिए तय किये गये उद्देश्यों यानी लोगों को सूचित करने, शिक्षित करने, मार्गदर्शन देने और मनोरंजन करने को बखूबी निभाना जारी रखा। यही वजह है कि आज भी सामान्य भारतीय नागरिक अपनी दुरूहता के समय अखबारों की ओर बड़े ही विश्वास और आशा के साथ देखता है।
फिलहाल यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि आज की अधिकांश पत्रकारिता उन मूल्यबोध पर खरी नहीं उतरती, जिनके बलबूते हमारी पत्रकारिता की बनावट और मंजावट की गई थी। यह गिरावट तब से अधिक है, जब से हमने पत्रकारिता मिशन को मीडिया इण्डस्ट्री में बदलने को चुपचाप स्वीकार करना शुरू कर दिया था। हम याद करें कि आजादी की लड़ाई के उस प्रारम्भिक दौर को जब भारतीय पत्रकारिता ने आकार लेना शुरू किया था। तब की पत्रकारिता के समक्ष एक सीधा उद्देश्य था कि देश को आजाद कराना है और भारतीयों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। इस कार्य को बहुत ही शिद्दत के साथ किया गया। इतिहास गवाह है कि उन दिनों के पत्रकारों ने जो कुछ किया वह सब कुछ किसी क्रांतिकारी सोच से परे नहीं था। यह अनायास नहीं था कि महात्मा हों या फिर महामना, पत्रकारिता को आजादी और जन जागरूकता का हथिायर बनाकर चल रहे थे। आजादी के बाद की पत्रकारिता ने अपने लिए देश के विकास का एजेंडा तय किया, लेकिन साठ का दशक पार करते ही साहित्य की तरह ही पत्रकारिता भी मोहभंग का शिकार हो गई। आपातकाल में यही मोहभंग स्वयं पत्रकारिता का जागरण काल बनकर सामने आया। यह वह समय था जब पत्रकारिता के ‘मिशन’ को हाशिए पर ढकेलकर ‘परमिशन’ के रास्ते पर ले जाने की कोशिश की गई। बिना परमिशन के खबरों को छापना असंभव कर दिया गया। अस्सी के दशक में एक बार फिर जब कांग्रेस सतता में लौटी तो उस इस बात का भान था कि अखबारी पत्रकारिता अपनी मजबूत स्मृति परम्पराओं के कारण सीना ताने खड़ी रहेगी, सो टेलीविजन की दुनिया को अखबारी दुनिया के बरकस खड़ा कर दिया गया। पत्रकारिता के मीडिया बनने का दौर यहीं से शुरू हो गया। इस काम में ईधन देने का काम किया गया मीडिया में विदेशी पूंजी के निवेश की अनुमति देकर। नतीजा तय था, जहां पूंजी लगेगी, वहां मुनाफे की दरकार रहेगी ही। बस पत्रकारिता को ‘कमीशन’ का चस्का लग गया। ‘मिशन’ लेकर चली पत्रकारिता ‘परमिशन’ के दौर से होती हुई ‘कमीशन’ के फेर में फंस गई। यहीं से लोक से दूर होती पत्रकारिता के खाते से मूल्यबोध खारिज हो गए। ‘राडिया प्रकरण’ में मिशनरी पत्रकारिता के दरकने की गूंज अभी भी ताजी है।
वैसे सारा खेल खुद न्यूज चैनलों द्वारा ही चौपट किया गया है। समस्या तो तभी शुरू हो गई थी जब लगभग सभी चैनल आगे निकल जाने और टीआरपी की होड़ में शामिल हो गए थे। पूंजी और मुनाफे की गणित में दर्शक बेचारा उपभोक्ता बन कर रह गया और उसके हिस्से खबरें टीवी स्क्रीन से गायब हो गईं। दर्शकों को बेवजह हंसने पर मजबूर किया जाने लगा या फिर स्क्रीन पर रिएलिटी शो के बहाने इमोशनल ब्लैकमेलिंग का शिकार बनाया जाने लगा। खबरों के लिए तरसते दर्शकों को कभी स्पीड में तो कभी बुलेट की तर्ज पर खबरों का शतक लगाने का हुनर दिखाया जाने लगा। यह अकारण नहीं है कि इधर टेलीविजन न्यूज चैनल खबरों की हॉफ सेंचुरी और फुल सेंचुरी लगाने में मस्त थे और उधर दर्शकों ने अपने पुराने साथी अखबार से जुडऩा ठीक समझा। अकेले उत्तर प्रदेश में पिछल दस वर्षों में कई अखबारों के नए-नए संस्करण शुरू हुए हैं तो कई अखबारों ने अपने संस्करणों को यहां से निकालना शुरू कर दिया है और करते जा रहे हैं।
फिलहाल मुनाफे की होड़ और नकल मारने की भेड़चाल का शिकार टीवी न्यूज मीडिया पिछले पांच वर्षों में ऐसा कुछ भी नया नहीं कर पाया है, जिसे पत्रकारिता के मिशन की कसौटी पर कसा जा सके। जिस किसी ने भी मिशन की बात की, उसे पुराने जमाने का मानकर हाशिए ढकेल देने में ही भलाई समझी। हर किसी को समझा दिया गया कि इण्डस्ट्री है तो पूंजी लगेगी ही और पूंजी लगी है तो मुनाफे की बात तो सोचनी पड़ेगी। लेकिन मुनाफे के लिए उपभोक्ता को ठगा जाना जरूरी है, यह तो नियम नहीं है। यह शायद मीडिया इण्डस्ट्री में ही होता हो कि उपभोक्ता की सुनने वाला कोई नहीं है। मिशन और मुनाफे में फंसी मीडिया के मानिंद भी इस मसले पर चुप्पी साधे रखने पर ही भलाई समझते हैं।
इककीसवीं सदी में डिजिटल दुनिया के बड़े होने के साथ यह उम्मीद की जा रही थी कि नागरिक चेतना के विस्तार के तौर पर विकसित हो रही नागरिक पत्रकारिता मीडिया को उसके मूल्यबोध का अहसास करा देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उलट इसके पेड न्यूज, पेड व्यूज, फेक न्यूज जैसे जुमले सामने आ गए। मीडिया के प्रति जन-विश्वास के डिगने के साथ ही उसकी जरूरत को सिरे से खारिज किया जाने लगा। खबरों के साथ बहेसियों की भीड़ और नाटक यानी ‘खबराटक’ के प्रयोग ने पत्रकारिता को नुकसान ही पहुंचाया। नतीजा यह कि टेलीविजन की पत्रकारिता ने जवानी की दहलीज पर पहुंचते ही अपने लिए खुद ही गड्ढा खोद लिया। रही सही कसर कोरोना काल ने पूरी कर दी। हर बार की तरह इस बार भी आपदाकाल में टेलीविजन पत्रकारिता की बचकानी हरकतों ने उसे हंसी का पात्र बना दिया। सच तो यह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद आज भी टेलीविजन की ‘बुद्धू बक्से’ वाली छवि पुख्ता बनी हुई है और उसे इससे मुक्ति नहीं मिलने वाली है।
सवाल यह उठता है कि आखिर वे रास्ते क्या हैं जो हमारी पत्रकारिता को पुन: उन मूल्यों से जोड़ सकते हैं, जो इंसानी संवेदनाओं और सरोकारों के लिए बहुत जरूरी होते हैं। तो हमें इसके लिए अपनी स्मृति परम्पराओं को ही खंगालना होगा और देखना होगा कि किस तरह पत्रकारीय मूल्यबोध की बनावट में हमारे पुरोधाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वे इसे स्थापित करते थे और फिर बखूबी निभाते भी थे। सबसे बड़ा उदाहरण तो पत्रकारिता के मानक रचने वाले महामना मदन मोहन मालवीय ने प्रस्तुत किया है। जब कालाकांकर के राजा रामपाल ने अपने अखबार हिन्दोस्थान के संपादन के लिए महामना से आग्रह किया तो महामना ने यह शर्त रख दिया कि न तो राजा साहब संपादन के कार्य में दखल देंगे और न ही वे नशे की हालत में बातचीत के लिए प्रस्तुत होंगे या बुलाएंगे। मालवीय जी ने बड़ी मेहनत के साथ हिन्दोस्थान का संपादन किया और महज ढाई वर्ष में उसे पाठकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय कर दिया। लेकिन वही हुआ जिसका डर था। एक दिन राजा रामपाल ने किसी विषय पर विमर्श करने के लिए मालवीय महाराज को बुला भेजा। मालवीय जी ने जैसे ही यह पाया कि राजा नशे में हैं, उन्होंने ततकाल अपनी शर्त याद दिलाई और सारी मान-मनौव्वल को दरकिनार करते हुए संपादक पद छोड़ दिया। मालवीय जी मूल्यों और विश्वसनीयता पर अपने समय की पत्रकारिता को गढऩा चाहते थे, ताकि पत्रकारिता के भविष्य के लिए मान व प्रतिमान गढ़े जा सकें। इसी तरह का एक और प्रकरण हमें बार-बार दोहरा लेना चाहिए। एक बार बतौर संपादक कृष्णकांत मालवीय ने अभ्युदय की नीति के प्रतिकूल अग्रलेख लिख दिया। अभ्युदय को स्थापित करने वाले मालवीय जी से रहा न गया और उन्होंने ततकाल संपादक के नाम पत्र लिखकर अपनी नाराजगी कुछ इस तरह जताई- ‘कल रात मैंने स्वप्न देखा कि अभ्युदय प्रेस में आग लग गई है, किंतु अभ्युदय का जो अंक मुझे अभी प्राप्त हुआ है, उससे मुझे जलते हुए प्रेस को देखने की अपेक्षा अधिक कष्ट हुआ है। यदि इस अंक के संपादकीय लेख के मुद्रित होने से पूर्व अभ्युदय प्रेस भस्म हो जाता तब भी मुझे इतना शोक न होता। यदि मैं अभ्युदय बंद करके इस पाप का प्रायश्चित कर पाता तो ततकाल कर डालता। तुम्हें ऐसा लेख मेरे जीवन में नहीं प्रकाशित करना चाहिए था, जिससे मेरी लोक निंदा हो और मुझे लज्जित होना पड़े।’
इसी तरह प्रख्यात पत्रकार और अपने पत्रकारिता की शुचिता के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी ने १६ मई १९३० में विष्णुदतत की पुस्तक पत्रकार कला की भूमिका में जो लिखा था, उसे आज दोहरा लेने की जरूरत है। वे लिखते हैं कि – ‘पत्रकार कैसा हो, इस सम्बन्ध में दो राय हैं। एक तो यह कि उसे सत्य या असत्य, न्याय या अन्याय के आंकड़े में नहीं पडऩा चाहिए। एक पत्र में वह नरम बात कहे, तो दूसरे में बिना हिचक वह गरम कह सकता है। जैसा वातावरण देखे, वैसा करे, अपने लिखने की शकित से हटकर पैसा कमावे, धर्मऔर अधर्म के झगड़े में न अपना समय खर्च करे न अपना दिमाग ही। दूसरी राय यह कि पत्रकार की समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है, वह अपने विवेक के अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है, वह जो कुछ लिखे, प्रमाण और परिणाम का लिखे और अपनी गति-मति में सदैव शुद्ध और विवेकशील रहे। पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं है। लोक सेवा उसका ध्येय है और अपने काम से जो पैसा कमाता है, वह ध्येय तक पहुंचाने के लिए साधन मात्र है। संसार के पत्रकारों में दोनों तरह के आदमी हैं। पहले दूसरी तरह के पत्रकार अधिक थे, अब इस उन्नति के युग में पहली तरह के अधिक हैं। ’’जाहिर है कि हमें इन्हीं बातों के सहारे अपने रास्ते तय करने की कवायद करनी होगी।’
महामारी से जूझते इस डिजिटल समय में मीडिया की जिम्मेदारी पहले से कहीं अधिक बढ़ी है। यह मीडिया ही है जो सामान्य जन के मनोभावों के प्रबन्धन और इसी के सहारे मस्तिष्क प्रबन्धन में बड़ी भूमिका निभा सकता है। लोगों का जीवन और जीवन को चलाने के लिए जरूरी रोजी-रोटी के असुरक्षित होते जाने के इस गाढ़े समय में ‘जन-सम्बल’ को बरकरार रखने और ‘लोकाभिव्यकित’ को मजबूत स्वर देने में मीडिया ही सक्षम है। ऐसे में जरूरी है कि मीडिया समय, समाज, संस्कृति, संस्कार और सरोकार की पारस्परिक नातेदारी में निहित मूल्यों को बेहतर ढंग से समझे और बरास्ते इनके जन-विश्वास को वापस पाने का पुन:-पुन: प्रयास करता रहे।
(लेखक सेन्टर ऑफ मीडिया स्टडीज, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पाठ्यक्रम समन्वयक के पद पर कार्यरत हैं।)
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